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ज़माना तो फिर ज़माना है

ज़माना तो फिर ज़माना है
इसे बन के क्या दिखाना है..

ख़ाली बोतलों में ये जाम ढूंढे
भरे पैमानों को इसे छलकाना है..
ज़माना तो फिर ज़माना है
इसे बन के क्या दिखाना है..

वक़्त काटने को इसे बातें चाहिए
बातों को इसकी दिल से क्या लगाना है..
ज़माना तो फिर ज़माना है
इसे बन के क्या दिखाना है..

सब बेगाने ही इसने अपने माने
अपनों को इसने कहाँ अपना माना है..
ज़माना तो फिर ज़माना है
इसे बन के क्या दिखाना है..

अपना दर्द अपनी ख़ुशी बस यही सच्चे हैं..
औरों का ग़म उनकी हंसी तो सब बहाना है..
ज़माना तो फिर ज़माना है
इसे बन के क्या दिखाना है..

जिसे न देखा उसे खुदा माना
जिसे देखा उसे न पहचाना है..
ज़माना तो फिर ज़माना है
इसे बन के क्या दिखाना है..

-मंजुसुत ईशांश

कहीं एक खाली सड़क है..

खुले आसमान के नीचे
एक सुनसान सूनी सहमी
कुछ कदमों की प्यासी सड़क है..
कहीं एक खाली सड़क है..

वो ना जाने
कहाँ से आती है,
वो ना जाने
कहाँ को जाती है,
ना नाम है कोई,
ना निशान है कोई,
बस अकेली गुमनाम सड़क है..
कहीं एक खाली सड़क है..

किनारे के पेड़ों के पत्ते
जो कभी सजाते थे उसे,
वो हरी भरी डालें
जो कभी संवारती थीं उसे,
वो पत्ते खो गए,
वो डालें टूट गईं,
सूखे पेड़ों के बीच
एक अकेली उदास सड़क है..
कहीं एक खाली सड़क है..

डालों पे कभी
कुछ पंछी आ जाते थे,
खेलते, लड़ते, उड़ते, उछलते
कुछ मीठे गीत सुना जाते थे,
अब एक पंछी न दिखे,
एक साया न मिले,
बीते वक़्त को याद करती
एक मुरझाई ख़ामोश सड़क है..
कहीं एक खाली सड़क है..

जो बरसात हो
तो आँखें भिगा लेती है,
जब सूरज जले तो
दिल अपना जला लेती है,
बिजली चमके अगर
तो डर जाती है,
चाँदनीं बरसे अगर तो
मुस्कुरा जाती है,
सब सहती, चुप रहती,
एक बेआवाज़ अनजान सड़क है..
कहीं एक खाली सड़क है..

जाने कब से पलकें खुली हैं,
थकी निगाहें जाने कब से बिछी हैं,
कि इक राही तो आ जाये,
कोई एक साथी तो आ जाये,
कभी न ख़त्म होते
इंतज़ार में डूबी सड़क है..
कहीं एक खाली सड़क है..

जाने किस मंज़िल से मिली है,
जाने किस साहिल से जुड़ी है,
कोई राही कभी चले,
तो सड़क से फिर राह बने,
यही तो मंज़िल, रस्ते
और सड़क में फरक है..
कहीं एक खाली सड़क है..
एक सुनसान सूनी सहमी
कुछ कदमों की प्यासी सड़क है..
कहीं एक खाली सड़क है..

“पृकृति”

ज़रा देखो अपने आस पास
हर ज़र्रा कुछ बतलाता है
पृकृति का कण कण
कुछ न कुछ हमें सिखाता है ||

हवा सिखाती है चलना
ये नदी सिखाती बहना |
सूरज कहे जगमगाओ तुम
और चंदा शीतल रहना||
एक छोटा सा जुगनू भी अंधियारे पथ को उजलाता है ||
पृकृति का कण कण
कुछ न कुछ हमें सिखाता है ||

किसी भी सूरत में डिगें नहीं
ये पर्वत हमें बताता है |
मन को विशाल बना लें हम
सिंधु ये बोल सुनाता है ||
पर-उपकार में जियें सदा
हर वृक्ष ये गाथा गाता है ||
पृकृति का कण कण
कुछ न कुछ हमें सिखाता है ||

किस दिशा हमें जाना है
ये तारे राह दिखाते हैं |
झुलसाती कभी जो गर्मी हो
तो बादल हमें बचाते हैं ||
न जाने कौन है वो पंछी
जो हर सुबह मुझे जगाता है
और यही एहसास दिलाता है कि
पृकृति का कण कण
कुछ न कुछ हमें सिखाता है ||

“वो दौर”

अब मैं कुछ और हूँ
अब तू कुछ और है
सब कुछ है बदल गया
ये वक़्त ही कुछ और है
पर मेरे दोस्त
तेरे मेरे साथ का वो दौर ही कुछ और था|

कब घर से निकलेगा
कहाँ से बैट लाएगा
ग्यारह खिलाडी हुए कि नहीं
एक्स्ट्रा प्लेयर कहाँ से आएगा
मैच शुरू होने का
वो इंतज़ार ही कुछ और था
ऐ मेरे दोस्त
तेरे मेरे साथ का वो दौर ही कुछ और था|

आज बस कुछ करना ही है
ये मैच जीतना ही है
पिछली बार धोखे से हराया था
उस नए बॉलर का मुंह तो पीटना ही है
सिगरेट के कश लगाते लगाते
वो मैच की प्लानिंग करने का मज़ा ही कुछ और था
ऐ मेरे दोस्त
तेरे मेरे साथ का वो दौर ही कुछ और था|

कितना रुकने को बोला था
कैच दे के आ गया
कितना समझा के भेजा था
फिर वैसे ही बल्ला घुमा के आ गया
तुझे गालियों से समझाने का
मेरा वो अंदाज ही कुछ और था
ऐ मेरे दोस्त
तेरे मेरे साथ का वो दौर ही कुछ और था|

कितने सारे रन बनाने हैं
और विकेट भी बस एक ही है
उधर बोलर्स कितने हैं
और इधर बल्लेबाज़ एक ही है
फिर भी ये मैच जीतना है
तेरा मेरा वो हौसला ही कुछ और था
ऐ मेरे दोस्त
तेरे मेरे साथ का वो दौर ही कुछ और था|

सारे फील्डर्स बॉउंड्री पे लगाये हैं
बॉल बाहर कैसे जाएगी
ज़मीं से तो मुश्किल है
तो हवा में ही उछाली जाएगी
डरते हुए छक्का लगाने का
मेरा वो इरादा ही कुछ और था
ऐ मेरे दोस्त
तेरे मेरे साथ का वो दौर ही कुछ और था|

बस दो और रन बनाने हैं
क्रीज़ पे रुक जाना
जैसे ही बॉल आये
हिट करके भाग जाना
कहीं आउट न हो जाऊं मैं
तेरी उन दुआओं का वो ज़ोर ही कुछ और था
ऐ मेरे दोस्त
तेरे मेरे साथ का वो दौर ही कुछ और था|

ख़ुशी से बैट लहराया मैंने
और ख़ुशी से हाथ उठाये तूने
मैंने तुझको और
मुझे गले से लगाया तूने
अपने दम पे मैच जीता दिया मेरे भाई
तेरे उन बोलों मैं अपने-पन का एहसास ही कुछ और था
ऐ मेरे दोस्त
तेरे मेरे साथ का वो दौर ही कुछ और था|