कभी छांव में बैठे मुझको
एक सिहरन सी दे जाती है,
तपती वो जेठ दोपहरी
मेरा मन, आज भी जला जाती है|
मैं विनय ही करता जाता
अनंत अग्नि के सागर से,
अनुरोध मैं करता जाता
उस भानु रवि भास्कर से..
हे प्रभो तपन कम करते
कुछ भला मेरा हो जाता,
कुछ दूर बचा है मेरा घर
मैं पहुँच कुशल से जाता..
पर लगता है प्रार्थना मेरी
न पहुँच तुम तक पाती है,
तपती वो जेठ दोपहरी
मेरा मन, आज भी जला जाती है|
मेरा तन झुलसे, ये मन झुलसे
पर दया कहीं से न मिलती,
तर करने को ये सूखा कंठ
दो बूंद नीर की न मिलती..
आशा भर नेत्रों में अपने
मैं गगन को तकता जाता था,
जल मेघ कहीं से आ जाएँ
पर कृपा वरुण की न मिलती..
प्यास तो मेरी न मिटती
पर घाम प्रचंड हो जाती है,
तपती वो जेठ दोपहरी
मेरा मन, आज भी जला जाती है|
प्राणों में शक्ति समेट-समेट
पग पे पग रखता जाता था,
लो दूरी अभी समाप्त हुई
मन में ये रटता जाता था..
फिर एक झलक घर की दिखती
मन पुलकित सा हो जाता था,
वो सफर नहीं संग्राम हो एक
मैं संग्राम जीतकर आता था..
जाते प्राणों में जैसे मेरी
प्राणशक्ति लौट के आती है,
तपती वो जेठ दोपहरी
मेरा मन, आज भी जला जाती है|
वो कांच का एक दरवाज़ा
जैसे स्वर्ग का मुझको द्वार दिखे,
मात पिता के रूप में जैसे
ईश्वर का मुझे दरबार दिखे..
शीतल जल का वो एक घड़ा
अमृत का कलश बन जाता है,
सांसों की डूबती नैया को
वापस जीवन तट ले आता है..
ये छांव मेरे जलते मन पर
कुछ वैसा ही लेप लगाती है,
तपती वो जेठ दोपहरी
मेरा मन, आज भी जला जाती है|
इस छांव में बैठे मुझको
एक सिहरन सी दे जाती है,
तपती वो जेठ दोपहरी
मेरा मन, आज भी जला जाती है|
-ईशांश