“पृकृति”

ज़रा देखो अपने आस पास
हर ज़र्रा कुछ बतलाता है
पृकृति का कण कण
कुछ न कुछ हमें सिखाता है ||

हवा सिखाती है चलना
ये नदी सिखाती बहना |
सूरज कहे जगमगाओ तुम
और चंदा शीतल रहना||
एक छोटा सा जुगनू भी अंधियारे पथ को उजलाता है ||
पृकृति का कण कण
कुछ न कुछ हमें सिखाता है ||

किसी भी सूरत में डिगें नहीं
ये पर्वत हमें बताता है |
मन को विशाल बना लें हम
सिंधु ये बोल सुनाता है ||
पर-उपकार में जियें सदा
हर वृक्ष ये गाथा गाता है ||
पृकृति का कण कण
कुछ न कुछ हमें सिखाता है ||

किस दिशा हमें जाना है
ये तारे राह दिखाते हैं |
झुलसाती कभी जो गर्मी हो
तो बादल हमें बचाते हैं ||
न जाने कौन है वो पंछी
जो हर सुबह मुझे जगाता है
और यही एहसास दिलाता है कि
पृकृति का कण कण
कुछ न कुछ हमें सिखाता है ||

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